"हिन्दी में घट रही दिलचस्पी के चलते भारत में प्रकाशक भी हिन्दी किताबें छापने में हिचकिचाते हैं. युवा लेखक पंकज रामेन्दु खुद अपनी हिन्दी कविता संग्रह के लिए कहते हैं, "एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा."
पंकज कहते हैं समाज पर अंग्रेजी का इतना प्रभाव है कि लोग कुछ नहीं तो कम से कम हाथ में अंग्रेजी किताब ही पकड़ कर चलना चाहते हैं. उनके लिए यह प्रगतिशील होने की निशानी है. लगता है हिन्दी की किताब हाथ में होगी तो जैसे मान सम्मान में बट्टा लग जाएगा.
हिन्दी भाषा को नई दिशा देने के लिए काम कर रही संस्था 'कलमकार' ने 2050 तक इसे दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा बनाने का लक्ष्य रखा है. लेकिन यह आसान नहीं. भारतीय लेखकों का मानना है कि प्रकाशक उनकी किताबें हिन्दी में छापना नहीं चाहते और पाठक खरीदना नहीं चाहते.
युवा कवि पंकज ने डॉयचे वेले से कहा कि जब दो साल तक वह अपनी किताब 'रेहड़ी' छपवाने के लिए प्रकाशकों के चक्कर काटते रहे तब उन्हें एहसास हुआ कि हिन्दी में किताब छपवाना कितना मुश्किल है. हर प्रकाशक से उन्हें यही सुनने को मिला, "हिन्दी कौन पढ़ता है? और वह भी कविताएं?" पंकज ने कहा कि ज्यादातर प्रकाशक हिन्दी लेखकों को अपने खर्चे पर किताब छपवाने की सलाह देते हैं. अंत में उन्हें एक प्रकाशक मिल गया.
इस तरह का अनुभव उनके अलावा दूसरे युवा लेखकों के लिए भी निराश करने वाला है. पंकज का कहना है, "पाठक वर्ग उत्सुक और जिज्ञासु नहीं है. हिन्दी पढ़ने वाले को भी अकसर लोग अजीब नजर से देखते हैं." उन्होंने कहा कि न तो सरकार भाषा के बारे में कुछ सोच रही है न खुद देशवाले. ऐसे में "हिन्दी के भविष्य के बारे में सोच कर डर लगता है कि आने वाली पीढ़ियों तक यह कितनी पहुंचेगी."
प्रकाशकों की उलझन
अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक पेंग्विन बुक्स के लिए भारत में हिन्दी की कमिश्निंग एडिटर रेणु अगाल कहती हैं कि कोई भी प्रकाशक बाजार के अनुसार ही काम करता है. हिन्दी बोलने वालों में ही हिन्दी किताबों को पढ़ने की भूख नहीं दिखती. रेणु ने डॉयचे वेले से कहा, "हिन्दी और अंग्रेजी किताबों का बाजार अलग तरह से काम करता है. जो किताब अंग्रेजी में 150 रुपये की बिकती है वही हिन्दी में बेचने के लिए उसकी कीमत 50-60 रुपये रखनी पड़ती है. लोग हिन्दी की किताबों पर पैसे नहीं खर्च करना चाहते और कोई भी प्रकाशक अपने लिए मुश्किलें क्यों पैदा करेगा? यह भारत के लिए दुर्भाग्य है हिन्दी भाषा को लेकर खुद भारत वासियों में आकांक्षा नहीं है."
रेणु को यह भी लगता है कि हिन्दी लेखकों को भी बदलने की जरूरत है. कहीं न कहीं हिन्दी लेखक पाठकों की बदलती मानसिकता के साथ चल नहीं पा रहे हैं. पाठक नई सोच की किताबें पढ़ना चाहते हैं. जिन लेखकों में वह बात है उनकी किताबें छप रही हैं."
विश्व भाषा का सपना
हिन्दी भाषा के प्रचार और प्रसार के लिए काम करने वाले गैरसरकारी समूह 'कलमकार' का प्रबंधन देख रहे तसलीम खान कहते हैं कि अगर कोशिश की जाए तो हिन्दी भाषा की खोई लोकप्रियता वापस पाई जा सकती है. हाल ही में कलमकार ने हिन्दी विश्व भाषा नाम का सम्मेलन किया, जिसका मकसद हिन्दी को 2050 तक दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा बनाना है. इसमें हिन्दी के कई लेखक और पत्रकार शामिल हुए.
तसलीम मे डॉयचे वेले से कहा, "इस समय सोशल मीडिया सबसे बड़ी ताकत है. हमें उसके जरिए लोगों को हिन्दी भाषा के महत्व का एहसास कराना होगा. देश भर में जागरूकता पैदा करने के लिए बैठकें करनी होंगी." तसलीम ने यह भी बताया कि उनका समूह बड़े शहरों में बाजारों तक पहुंचेगा और लोगों को हिन्दी बोलने के लिए प्रोत्साहित करेगा, "एक आसान काम स्टिकर से किया जा सकता है, जैसे वीजा और मास्टर कार्ड के स्टिकर दुकानों में लगे होते हैं, वैसे ही हम एक स्टीकर हिन्दी के इस्तेमाल का भी लगा सकते हैं."
क्या है उपाय
चीनी, अंग्रेजी और स्पैनिश के बाद हिन्दी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है. लेकिन चीनी की तरह यह दुनिया के सिर्फ एक हिस्से तक सीमित है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी का प्रसार नहीं हो पाया और संयुक्त राष्ट्र की छह आधिकारिक भाषा में भी इसे जगह नहीं मिल पाई. हालांकि कम बोली जाने वाली रूसी और अरबी को वहां जगह मिल गई है.
पंकज रामेन्दु कहते हैं देश को जरूरत है ऐसे हिन्दी लेखकों की, जो प्रगतिशील और जिद्दी हों, "किताबें छपवाने में तो दिक्कतें आएंगी, लेकिन मैंने भी ठान लिया है लिखना तो सिर्फ हिन्दी में ही है. हमें ऐसी जिद्दी मानसिकता वाले लेखकों को बढ़ावा देना है." उनके अनुसार जिस तरह की रॉयल्टी अंग्रेजी किताबों पर मिलती है वैसी हिन्दी पर नहीं मिलती.
इस मामले में सरकार की दखलंदाजी के साथ हिन्दी भाषा की मार्केटिंग की भी जरूरत है. अगाल को लगता है जब तक खुद "देशवासी अपनी भाषा का सम्मान नहीं करेंगे, हिन्दी की लोकप्रियता घटती ही जाएगी."
रिपोर्टः समरा फातिमा
संपादनः अनवर जे अशरफ
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कृपया इसे ध्यान से जरूर पढ़ें
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किसी भी भाषा के खिलाफ नाराजगी नहीं दिखाई जा रही है... हमारे द्वारा केवल यह बताने और समझाने का प्रयास है.. कि
बाकी भाषाओँ कि तरह खासकर विदेशी भाषाओँ की तरह... हिन्दी को अच्छा स्थान क्यों नहीं मिलता... क्यों आज भी लोग हिन्दी आते हुए भी बोलने में शर्म महसूस करते है... और विदेशी भाषाओँ को बिना जरुरत बोलना शुरू कर देते है...
हम सब भारतीय है.. और हमें हमारी भारतीय संस्कृति सबसे प्यारी है...
और ये जरूरी भी नहीं हिन्दी आये ना आये बोलने लगो
यदि हम भारतीय भाषाएँ बोल सकते है... और जिससे हम बोल रहे है वो भी समझ सकता है... तो विदेशी भाषा को बिना मतलब बोलने की क्या जरुरत..??
"भाषा हमारे विचारों की अभियक्ति का माध्यम है" ... लेकिन जब हम अपने विचार मातृभाषा में करने और समझने में सक्षम है तो .. बिना बात विदेशी भाषा बोलना अपने आप को किसी दूसरे के सामने ऊँचा दिखने जैसा लगता है.. हाँ यदि अंतराष्ट्रीय स्तर पर आप किसी से बात कर रहे है तब उस भाषा में बोलना सही है जिसमे सामने वाला समझ सके .... वो हमारी संपर्क भाषा हो सकती है और तब हमें अंग्रेजी को एक संपर्क भाषा के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए.. ताकि हम जिससे बात कर रहे है वो हमारी बात को समझे... ना की अपने व्यक्तित्व को अंग्रेजी रंग में रंगना चाहिए.
"अपने आप को किसी के सामने अपना बड़ा व्यक्तित्व दिखने में कुछ नहीं है... हमें अपने देश के बारे में सोचना चाहिए... उसकी उन्नति के पक्ष में सोचना चाहिए "
सभी से निवेदन है... कि
"हिन्दी बोलने में शर्म ना करें ....
आती है हिन्दी........ तो हिन्दी में ही बात करें"
जय हिन्द