
हम हैं तमाशबीन
अपना ही घर फूंक कर
देखते हैं तमाशा
पर कबीर नहीं हो पाते
हम आग का इस्तेमाल
चूल्हों के लिए नहीं करते
उसमें सेंकते हैं हर दिन
प्रियजनों की देह
भूनते हैं बच्चों को
और भूख के लिए
ठहराते हैं जिम्मेदार
पुराने जन्म के पापों को
हम उत्सवप्रिय हैं
लाचारी, भूख, गरीबी
रेप, हत्या
सबका उत्सव मनाते हैं
अपने शहर के चौराहों से लेकर
इंडिया गेट तक
टीवी पर कई कई दिनों तक
उत्सवी हुए रहते हैं
और इस बीच भूल जाते हैं
प्रेमिका की इच्छाएं
बच्चों के खिलौने
बूढ़े मां-बाप की दवाई
नहीं याद आता वह बैंक
जो हमारी गाढ़ी कमाई
दे देता है श्रम के लूटेरों को
भविष्य निधि खा जाते हैं
संसद के पेटू भुक्खड़
मध्यान्ह भोजन पहुंच जाता है
किसी पांच सितारा होटल में
हम उत्सवप्रिय तमाशबीन हैं
चौरासी लाख योनियों में
मनुष्य योनी की महानता का
गुणगान करते हुए
खोए रहते हैं हम
जातियों, धर्मों, संप्रदायों के कीर्तन में
बलि का भेंड़ बनते हुए
इंसानी पुनर्जन्म की आशा में
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कविताएं