
भारत सरकार अधिनियम १९१९, तैयार कर रही साउथबोरोह समिति के समक्ष, भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर अम्बेडकर को गवाही देने के लिये आमंत्रित किया गया। इस सुनवाई के दौरान, अम्बेडकर ने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये पृथक निर्वाचिका (separate electorates) और आरक्षण देने की वकालत की। १९२० में, बंबई में, उन्होंने साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरूआत की। यह प्रकाशन जल्द ही पाठकों मे लोकप्रिय हो गया, तब्, अम्बेडकर ने इसका इस्तेमाल रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिये किया। उनके दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिये गये भाषण ने कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ को बहुत प्रभावित किया, जिनका अम्बेडकर के साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज मे हलचल मचा गया। अम्बेडकर ने अपनी वकालत अच्छी तरह जमा ली, और बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना भी की जिसका उद्देश्य दलित वर्गों में शिक्षा का प्रसार और उनके सामाजिक आर्थिक उत्थान के लिये काम करना था। सन् १९२६ में, वो बंबई विधान परिषद के एक मनोनीत सदस्य बन गये। सन १९२७ में डॉ. अम्बेडकर ने छुआछूत के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों और जुलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिये खुलवाने के साथ ही उन्होनें अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये भी संघर्ष किया। उन्होंने महड में अस्पृश्य समुदाय को भी शहर की पानी की मुख्य टंकी से पानी लेने का अधिकार दिलाने कि लिये सत्याग्रह चलाया।

१ जनवरी १९२७ को डॉ अम्बेडकर ने द्वितीय आंग्ल - मराठा युद्ध, की कोरेगाँव की लडा़ई के दौरान मारे गये भारतीय सैनिकों के सम्मान में कोरेगाँव विजय स्मारक मे एक समारोह आयोजित किया। यहाँ महार समुदाय से संबंधित सैनिकों के नाम संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाये। १९२७ में, उन्होंने अपना दूसरी पत्रिका बहिष्कृत भारत शुरू की, और उसके बाद रीक्रिश्टेन्ड जनता की। उन्हें बाँबे प्रेसीडेंसी समिति मे सभी यूरोपीय सदस्यों वाले साइमन आयोग १९२८ में काम करने के लिए नियुक्त किया गया। इस आयोग के विरोध मे भारत भर में विरोध प्रदर्शन हुये, और जबकि इसकी रिपोर्ट को ज्यादातर भारतीयों द्वारा नजरअंदाज कर दिया गया, डॉ अम्बेडकर ने अलग से भविष्य के संवैधानिक सुधारों के लिये सिफारिशों लिखीं।
पूना संधि
अब तक डॉ अम्बेडकर आज तक की सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की। अम्बेडकर ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता मोहनदास गांधी(महात्मा गांधी) की आलोचना की, उन्होने उन पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। अम्बेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे, उन्होने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो। 8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने मे है।
हमें अपना रास्ता स्वयँ बनाना होगा और स्वयँ ... राजनीतिक शक्ति शोषितो की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज मे उनका उचित स्थान पाने मे निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा.... उनको शिक्षित होना चाहिए .... एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने, और उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है।
इस भाषण में अम्बेडकर ने कांग्रेस और गांधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की शुरूआत की आलोचना की। अम्बेडकर की आलोचनाओं और उनके राजनीतिक काम ने उसको रूढ़िवादी हिंदुओं के साथ ही कांग्रेस के कई नेताओं मे भी बहुत अलोकप्रिय बना दिया, यह वही नेता थे जो पहले छुआछूत की निंदा करते थे और इसके उन्मूलन के लिये जिन्होने देश भर में काम किया था। इसका मुख्य कारण था कि ये "उदार" राजनेता आमतौर पर अछूतों को पूर्ण समानता देने का मुद्दा पूरी तरह नहीं उठाते थे। अम्बेडकर की अस्पृश्य समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको 1931 मे लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में, भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। यहाँ उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई। धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई, कि अछूतों को दी गयी पृथक निर्वाचिका, हिंदू समाज की भावी पीढी़ को हमेशा के लिये विभाजित कर देगी।
1932 मे जब ब्रिटिशों ने अम्बेडकर के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की,[4][5] तब गांधी ने इसके विरोध मे पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरु कर दिया। गाँधी ने रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने तथा, हिंदुओं की राजनीतिक और सामाजिक एकता की बात की। गांधी के अनशन को देश भर की जनता से घोर समर्थन मिला और रूढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं जैसे पवलंकर बालू और मदन मोहन मालवीय ने अम्बेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा मे संयुक्त बैठकें कीं। अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति मे, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गाँधी जी के समर्थकों के भारी दवाब के चलते अंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की माँग वापस ले ली। इसके एवज मे अछूतों को सीटों के आरक्षण , मंदिरों में प्रवेश/पूजा के अधिकार एवं छूआ-छूत ख़तम करने की बात स्वीकार कर ली गयी । गाँधी ने इस उम्मीद पर की बाकि सभी स्वर्ण भी पूना संधि का आदर कर , सभी शर्ते मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया।
आरक्षण सिस्टम में पहले दलित अपने लिए संभावित उमीदवारों में से चुनाव द्वारा (केवल दलित) चार संभावित उमीदवार चुनते । इन चार उमीदवारों में से फिर संयुक्त निर्वाचन चुनाव (सभी धर्म \ जाती) द्वारा एक विजेता चुना जाता । इस आधार पर सिर्फ एक बार सन 1937 में चुनाव हुए । आंबेडकर 20-25 साल के लिया आरक्षण चाहते थे लेकिन गाँधी के अड़े रहने के कारण आरक्षण केवल 5 साल के लागु हुआ।
पृथक निर्वाचन में दलित दो वोट देता एक जनरल कास्ट के उम्मीदवार को ओर दूसरा दलित(पृथक) उम्मीदवार को। ऐसी स्थिति में दलितों द्वारा चुना गया दलित उम्मीदवार दलितों की समस्या को अच्छी तरह से तो रख सकता था किन्तु गैर उम्मीदवार के लिए यह जरूरी नहीं था कि उनकी समस्याओं के समाधान का प्रयास भी करता। बाद मे अम्बेडकर ने गाँधी जी की आलोचना करते हुये उनके इस अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी माँग से पीछे हटने के लिये दवाब डालने के लिये गांधी का खेला एक नाटक करार दिया। असली महात्मा तो ज्योति राव फुले थे ।
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डॉ. भीम राव अम्बेडकर